Life Of Qalunder Maujshaahi

HomeLife Of Qalunder Maujshaahi

छोट मुंह कइसे करे आप बड़ाई तोहरी
सुख मिला हमका बड़ा तोहरी सरनिया सइंया (गूलर के फूल)

गरीब परिवर , फ़रिश्ता सिफ़त, रहबर, शहंशाह, फकीर कामिल,आलिम, हकीम, शुरू ज़िन्दगी से ही तमाम दुनयावी ख़्वाहिशों से अलग राहे तरीक़त अख़्तियार करने वाले, ज़बान की शीरीनी पर मख़्लूक़ इस कदर फ़िदा कि लोग खिंचे चले आते हैं, जिनकी नज़रों से शफ़क़त और रहमत बरसती है, जिनके क़दमों की आहट से कायनात लरजती है, जिनकी मुबारक आवाज से हर गम भूल जाता है, मौजशाही सिलसिले के पीर और हमारे हबीब उनके बारे में कुछ कहने की गुस्ताख़ी करने की माफ़ी चाहते हैं। हज़रत ने कभी नहीं चाहा कि लोग उनके बारें में जाने । जो कुछ भी मजलिसे ख़ास या मजलिसे आम में कभी कभी टुकड़ो में हज़रत की ज़बाने मुबारक से ज़ाहिर हो गया या पुराने लोगों से सुनने को मिला, वही सब जोड़ कर कलमबंद करने की कोशिश है।

अदना से अदना आदमी ज़माने भर का मारा उदास, लाचार, हज़रत ऐसे अपने दामन में समेट लेते हैं कि जीने की वजह मिल जाती है। नस्ल, जात, हैसियत, उम्र, आदमी, औरत कुछ नहीं सिर्फ़ रूह देखते हैं। हज़रत फ़रमाते हैं-

‘‘हज़ारो साल का सफ़र तै करके मलकूत में रहने के बाद ज़मीन की तरफ़ कोई रूह आती है नादान इस बात को जानते नहीं, हज़ारों बरस जगह जगह सितारों में रहने के बाद, मंगल, बृहस्पति, सूर्य में, चन्द्रमा में, सनीचर में उसी के सब असरात क़ायम होते हैं, जहां कम दिन रहा कम असर, जहां ज्यादा दिन रहा ज्यादा असर रहा, ये निज़ामे कुदरत है इसी एतबार से इन्तज़ामात होते हैं। रूह से मुख़ातिब होने वाली रूहें बहुत कम आती हैं, जो बातिन की तरफ़ मुख़ातिब हो जाएं, और जो मुख़ातिब हो गईं गोया वो जाने क्या क्या हैं।’’ इसी वजह से हर पैदा होने वाली औलादे आदम क़ाबिले एहतराम है।

सन् 1991 में ‘रसखान संस्था’ की बुनियाद रखी, तब से हर बरस अप्रैल के महीने में ‘‘मुशायरा कवि सम्मेलन’’ होता है। जिसमें हिन्दुस्तान भर के नामी गिरामी कवि और शायर शिरकत करते हैं और ‘रसखान संस्था’ का बुलावा उन सब के लिये बायसे फख्र है। हज़रत के ज़ेरे साया ख़ानकाह मौजशाही के कई लोग मिल कर इतने बड़े काम को अंजाम देते हैं। इसके पीछे हमारे हज़रत की मंशए मुबारक मख़्लूक़ को तहज़ीब सिखाना है। इस कलयुग में खत्म हो रही इनसानियत को ज़िन्दा करना। हज़रत फ़रमाते हैं- ‘‘हम सूफ़ी हैं, हमारी तहज़ीब है- मुख़्तलिफ़ रंगों के फूल जमा करके गुलदस्ता सजाना, हम ये करते रहेेंगे। इस सिलसिले में हमें कोई राय न दे कि ग़ज़ल को अलग कर लीजिए और गीत को अलग करके अलग अलग प्रोग्राम कीजिए।

इसी के तहत एक और प्रोग्राम सन् 2000 में बच्चों के लिए, ‘हसखान’ की शुरूआत हुई। इसमें पांच बरस से सत्रह अठारह बरस तक के बच्चों को शामिल किया जाता है और बाक़ायदा महीने भर तइय्यारी होती है। बच्चे तरह तरह की कविता गीत ग़ज़ल याद करते हैं। हुजूर अपनी देखभाल में हर एक बच्चे को सुनते और इस्लाह करते हैं। यही असली सूफ़ियों का तरबियत और परवरिश का अंदाज़ है, ये उस आसमानी शख्सियत से ही मुमकिन है। यही बच्चे जब बड़े होंगे तो तहज़ीब की खुश्बू लिए हुए एक पीढ़ी तइय्ययार होगी।

इसी तरह ख़ानक़ाह ‘मौजशाही’ में जो महफ़िले समा होती है। उसमें भी हज़रत ने बारहा फ़रमाया है-‘‘इन्तख़ाब ऐसा हो कि रूह को ग़िज़ा मिले और कव्वाल का पेट भी भरे।’’ जो सूफी ख़ानकाह में ही मुमकिन है, ये भी परवरिश का अंदाज़ है। ख़ानक़ाह मौजशाही में बुध की महफ़िले समा सन् 1970 से मुसलसल बिना नागा हर मौसम हर हाल में उसी रौनक़ और शान बान से लगातार हो रही है, ज़्यादा क्या कहा जाए, ये अपने आप में एक मोअज्जिज़ा है जो हमारे हज़रत की निगाह और पीराने सिलसिला के करम से क़ायम है। ‘गूलर के फूल’ की छै जिल्दें इसका सबूत हैं, जो हज़रत की फ़रमाई हुई रूहानी शायरी है। ख़ानक़ाह मौजशाही में ‘गूलर के फूल’ के कलाम ही गाए और सुने जाते हैं। इस तरह न कोई लिख सका है न आगे होना मुमकिन है।

‘‘हज़रत शाह मंजू़र आलम साहब’’ एक बलन्द पाया शायर भी हैं। वो अपनी शायरी की तशहीर से बिल्कुल बेन्याज़ हैं बल्कि ये कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि अपनी शायरी को मन्ज़रे आम पर लाना पसन्द नहीं करते हैं। उनकी शायरी तसव्वुफ़ और अध्यात्म का एक जहाने मानी लिए हुए है। ऐसी शायरी फी ज़माना सिर्फ़ शाह साहब जैसे लोगों की कलम से जन्म लेती है और साहबे दिल हज़रात के जे़हनो दिल को सुकून और फ़रहत बख़्शने के काम आती है। शाह साहब को उर्दू और हिन्दी जबान की तरह पूरबी जबान पर भी .कुदरत हासिल है, महफ़िले समां में पढ़े जाने के लिए बहुत से कलाम पूरबी जबान में भी तख़्लीक़ किए हैं, पूरबी हमारे हिन्दुस्तान की शीरीं तरीन ज़बानों में शुमार की जाती है।’’

– जनाब फारूक जायसी (सुनो तो जरा………)

हुज़ुर .खुद फ़रमाते हैं-‘‘गूलर के फूल महफ़िले समा के काम आते रहें और रूह की ज़िन्दगी पाने की चाह रखने वालों के दिलों को गरमाते रहें और उनकी रूहों के अन्दर जज़्बो मस्ती पैदा करने के काम आते रहें ताकि वो सही इंसानी तहज़ीब सीखकर, दिल ओ दिमाग़ में ठंडक रखने वाले इंसान बनकर और सारी इंसानियत के काम आने वाले संाचे में
‘‘गूलर के फूल’’ की छै जिल्दें यानी करीब साढ़े छै सौ (650) कलाम और हर वरक बेमिसाल और दूसरे से अलग ख़ासियत लिए हुए ।

‘‘बेशक शाह मंजू़र आलम मौजशाही एक बाकमाल सूफ़ी मनिश हैं, मौसूफ़ तरीक़त के बहुत मुमताज़ मक़ाम पर फ़ायज़ हैं। आप मक़ामें फ़क्ऱ ओ गना (फ़क़ीरी और शाही) में मारिफ़त और रमूज़े हयात के
– .गुलाम मुर्तज़ा राही (सुनो तो ज़रा……..)

‘गूलर के फूल’ का पहला भाग 1989 में छपा और फिर 2009 तक हज़रत की फ़रमाई हुई ‘रूहानी गुलदस्ता’ और 1994 में ‘कशकोल रूहानी’ छपी। फिर हज़रत रूमी की ‘मसनवी शरीफ़’ के छै दफ़्तर में से तीन की तशरीह जो सात भागों में ‘रहबरे तरीक़त’ के नाम से छपी हैं। हज़रत ‘कशकोल रूहानी’ में फ़रमाते हैं- ‘‘एक ज़माने से ‘मसनवी शरीफ़’ सूफ़ियों के लिए टेक्स्ट बुक का मरतबा रखती है। मसनवी के मरतबे का अन्दाज़ा हज़रत जामी के इस शेर से लगता है-

‘हस्त कुरआं दर ज़बाने पहलवी’ (मसनवी शरीफ़ फ़ारसी ज़बान में क़ुरआन का दरजा रखती है।)

मसनवी की जाने कितनी तशरीह लिखी गईं, बहुत सी ज़बानों में तरजुमे हुए हैं। पर हिन्दी रसमुख़त में पहली दफ़ा छपी है, वो भी इस अन्दाज़ में कि हम जैसे इस ज़माने के लोगों की समझ तक पहंुच सके। 1999 से 2009 तक ख़ानक़ाह मौजशाही में दोपहर 12 बजे से 2 बजे तक ‘मसनवी शरीफ़’ की तशरीह हमारे हज़रत फ़रमाते रहे। जो ‘रहबरे तरीक़त’ के नाम से सात भागों मंे छपी है। 11 बरस कुछ कम नहीं होते, ख़्वाह कोई मौसम कैसी भी सेहत रही हो, चिल्ला, न्याज़, महफ़िले समा या अजमेर शरीफ़, नागपुर शरीफ़, कलियर शरीफ़ की हाज़िरी, या फिर गांव का उर्स इन सब के इलावा दवा दुआ के लिए फरियादियों का रेला और इसके बीच में बिना नागा तशरीह चलती रही यानी 3000 से ज्यादा वरक, ये किसी इन्सान के बूते की बात नहीं, ये करामत किसी आसमानी हैसियत रखने वाले की कलम से ही मुमकिन है।

समय समय पर लिखे हुए शेर और लेख जो ‘रसखान स्मृतिका’ में और मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर फ़रमाए वो सब भी ‘सुनो तो ज़रा………..’ के नाम से किताब में छपे हैं।

जिला जौनपुर के बहेरी गांव के आला ज़मींदार घराने में 1358 हिजरी 17 रबी उस्सानी रात बारह बजे यानी सन् 1935 16-17 जून की रात इस धरती को नवाज़ा यानी हज़रत का जन्म हुआ, उस रात मूसलाधार बारिश हो रही थी।

सुबह साईं लोगों की टोली आई तो हज़रत के दादा हुज़ूर ने अनाज की कोठरी खुलवा दी जिसका जितना जी चाहे ले जाए। उम्र शरीफ़ कुछ महीने की थी कि एक दिन काला नाग फन काढ़े पायताने देखा गया। बग़ैर कोई नुक़सान पहुँचाए आहट सुनकर चला गया। पंडितों के मुताबिक इसके माने ये हुए कि सांप अगर सरहाने होता तो बच्चा राजा होता, लेकिन पायताने था इसलिये ये फ़क़ीर होगा यानी आसमानी बादशाह।

बचपन से ही दुनियावी चीज़ों का कोई शौक़ नहीं। अक्सर ख़ामोश ध्यान में डूबे रहते। यहां तक कि खाने पीने की भी ख़बर न होती, तब एक द़फा हज़रत के दादा हुज़ूर ने गोद में बैठा कर समझाया कि आप नहीं खाएंगे तो घर में कोई खाना नहीं खाएगा। तब से दस्तूर हो गया चाहे दो लुकमे नोश फ़रमाएं हज़रत के खाने के बाद ही लोग खाते हैं। स्कूली पढ़ाई के वक़्त भी गुमसुम से रहा करते थे, बचपन से उनकी ख़ामोशी में एक हैबत होती थी जो आम बच्चों से अलहदा उनकी उस आसमानी शख्सियत का अहसास करवा देती। करीब 1944-45 के ज़माने में हज़रत के दादा हुज़ूर ने फ़रमाया तुम्हारे पीछे हरदम दो चार लड़के लगे रहते हैं। कुछ बात है तुम्हारे अन्दर ये कभी नहीं देखा कि तुम्हारे साथ कुछ लोग न हों।

काॅलेज की पढ़ाई का वक्त आया तो फैसला कर लिया कि बस अब ज़ाहिरी इल्म छोड़कर उस दूसरी दुनिया की तरफ़ देखें जिसके लिए ज़मीन पर आए हैं।

एक ज़माने से कोई फ़क़ीर अक्सर हज़रत के वालिद साहब के पास आया करते थे। जुमा के रोज़ जाजमऊ से अपनी ज़रूरत का कुछ सामान लेने आते थे तो कुछ देर हज़रत के वालिद साहब के पास ठहरते और रवाना हो जाते, यही थे हमारे हज़रत के पहले पीर मख़्दूमिओ मुर्शिद हजरत हुसैनी शाह बाबा मदारिया सन् 1931 के जमाने से । उस वक़्त तने तन्हा जाजमऊ के टीले पर वो एक जिन्नाती मस्जिद, जो आज भी मौजूद है, में क़याम फ़रमाते थे। मदरिया सिलसिले के पीर हैं हमेशा सफेद लिबास में रहते थे।

घसियारी मंडी की दुकानों से चक्कर लगाते हुए कैन्ट वाले रास्ते से जाजमऊ जाते। कई बार हज़रत ने भी उनके पीछे जाने की कोशिश की, लेकिन वो कुछ देर तक दिखाई देते फिर ग़ायब हो जाते। आखिर एक दिन हज़रत ने बाबा हुज़ूर को रास्ते में रोककर कहा हमें भी कुछ करने को बताइए तो फरमाया यहां रास्ते में नहीं वहीं हमारे कमरे में आओ। उस वक़्त हज़रत की उम्र शरीफ 16-17 बरस की थी। इस तरह कई दफ़ा हुआ फिर हज़रत वहां गए, तब एक दुआ रात में पढ़ने को बताई। ऐसा करते ग्यारह रातें बीत गईं, बारहवीं शब को ,ख़्वाब देखा कि रात के सन्नाटे में गांव की सड़क पर जा रहे हैं, तभी सामने सड़क की सतह पर टाॅर्च जैसी तेज रोशनी दिखाई दी उसी के साथ एक बुज़ुर्ग ज़ाहिर हुए, पास आकर बोले एक महीने बाद तुम्हें मुरीद करेंगे। बस गायब हो गए, अब इन्तजार करने लगे। इसी बीच जाजमऊ वाले हज़रत दो दफ़ा आए लेकिन न उन्होंने कुछ पूछा और न हमारे हुज़ूर ने कुछ बताया। उस खास दिन हज़रत स्टेशन के पास वाली सड़क पर खड़े थे। तभी हज़रत बाबा हुसैनी शाह स्टेशन की तरफ़ से आते हुए दिखाई दिए। पास आकर बोले, आज तुम्हें बैत करेंगे, ये दिसम्बर 1952 का वाक़्या है। बैत करना माने मुरीद (शिष्य) बनाना। कनफुंकवा पीर नहीं, असली पीर जो तालीम दे सकें दोनो जहां की, हर बला से मुश्किल से हिफाजत कर के पौधे को छायादार दरख़्त बना दे। मुरीद भी दो तरह के होते हैं जो गै़ब से आसमान से अपना लक्ष्य लेकर आते हैं और दूसर जिन्हें अ-आ-ई से शुरू करना होता है। घर तशरीफ़ लाए बाहर के कमरे में तशरीफ़ फ़रमा हुए, कुछ देर दुआ पढ़ते रहे फिर किन्हीं तीन चीज़ों का ज़िक्र बताया और फ़रमाया बस इन्हीं पर अमल करो। इसके बाद शरबत मंगाया तो हमारे हज़रत एक लोटे पानी में शक्कर घोल कर ले आए उस पर नज्ऱ पेश की, बाबा हुजू़र ने खुदनोश फ़रमाया और हुज़ूर से पीने को कहा और फ़रमाया बाक़ी बंाट देना। जब सब हो चुका तो हज़रत ने अपना ख़्वाब बताया, इस पर फ़रमाया कि वो कादिरिया सिलसिले के पीर हज़रत बड़े पीर दस्तगीर शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी हैं। हजरत हुसैनी शाह बाबा कभी अपनी रूहानी ताक़त और हैसियत आम तौर पर ज़ाहिर नहीं करते थे। इसके बाद कभी कभी दोपहर केा साहब भी वहां जाकर बैठने लगे उस जिन्नाती मस्जिद में आस पास के बस्ती के लोग अपना दुख दर्द परेशानियां दूर करवाने के लिए पर्चियां लगा जाते थे। हजरत बाबा हुसैनी शाह साहब ने तो मशहूर कर रखा था कि सब काम जिन्नात करते हैं। एक दिन हज़रत वहां पहंुचे तो देखा कि बाबा साहब दीवार की तरफ मुंह करके खड़े हैं, एक एक परची पढ़ते और दाहिना हाथ उठाते जाते, तभी एकदम झटके से घूमे, लाल सुर्ख आंखों से हज़रत की तरफ देखकर फ़रमाया- ‘तुम लौट क्यों आए, जाओ भागो भागो।’ हज़रत फ़रमाते हैं कि जब रवाना होने का हुक्म हो जाए तो खुशी खुशी, बाअदब, दिल में कोई सवाल या खोट लाए बग़ैर क़दम बढ़ाए।

एक फ़क़ीरी ओहदा होता है जिन्हें अब्दाल कहते हैं। पूरी दुनिया में सात होते हैं जो हर वक़्त दुनिया की निगरानी करते हैं उन्हीं में से हज़रत बाबा हुसैनी शाह मदारिया अब्दाले आलम। बाबा साहब ने जून 1958 में परदा किया। कोई भी संत फकीर परदा फ़रमाने (देह त्याग) के वक़्त अपने प्रिय शिष्य को अपने पास नहीं रखते। हमारे हज़रत भी उस वक़्त उनके पास नहीं थे। कानपुर में गंगा किनारे टीले पर मज़ार शरीफ़ है। जहां हर साल जून महीने के आखिरी बृहस्पतिवार को बाबा साहब का उर्स बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, तमाम मख़्लूक़ फै़ज़याब होती है।

और फिर वक्त शुरू हुआ घनघोर तपस्या का, हालांकि उसकी ज़रूरत नहीं थी पर ग़ैब की दुनिया का दस्तूर है क़ानून है कि ज़मीन पर जिस्म के साथ आने के बाद हर तालीम से गुज़रना होता है। घर की छत पर बने हुए उस छोटे से बरसातीनुमा कमरे में ज़िक्र फ़िक्र का दौर, लगातार तीन साल ज़मीन पर ही सोना, न किसी से मिलना न कहीं जाना, नाम मात्र को खाने की रस्म अदा करना। साहब की हैबत से रात को छत पे न कोई आता जाता था न सोता था।

साहब का जो घर है, कैन्ट में स्टेशन के पास उससे सटा हुआ बरफ़ख़ाना (लक्ष्मी आइस फैक्ट्री) हुआ करता था उस ज़माने में, उसके मालिक ओम प्रकाश कपूर साहब थे। उस फ़ैक्टरी के अन्दर सइय्यद बाबा की समाधि थी। सन् 1966 की बात है, उन कपूर साहब से ख़्वाब में सइय्यद बाबा ने फ़रमाया,‘‘हमारे हज़रत का नाम लेकर कि उन्हें यहां बैठने को जगह दे दी जाए।’’ उसने ध्यान नहीं दिया। कुछ दिन बाद दीवाली की एक रात पहले ख़्वाब में आए और कपूर के सीने पर पैर रख के खड़े हो गए, और ग़ुस्से में फ़रमाया, मैंने जो कहा समझ नहीं आया फौरन अमल करो वरना तबाह हो जाओगे।’’ सुबह होते ही साफ़ सफ़ाई कर के कमरा तइय्यार करवाया और खुद हाथ जोड़े साहब के सामने हाज़िर हुआ, अब चल कर वहां बिराजिए वरना न जाने क्या क़यामत आ जाएगी। बरफ़ख़ाने में ख़ानक़ाह की शुरूआत हुई ज़िक्र दुआ और सिलसिला मुरीदो फ़रियादी और ज़रूरतमंदो की भीड़ का आना शुरू हो गया, दवाएं बताने, ईजाद करने और बंटने का हकीमी और वैद्यक का काम शुरू हुआ। सन् 1952 से 1970 तक मुसल्सल ब आवाज बलंद ज़िक्र होता रहा। तन्हे तन्हा छत पे चारपाई के पास कंबल बिछा रहता था फर्श पर उसी पर बैठ के ज़िक्र करते। फिर एक लम्बा अरसा गुज़रने के बाद, सन् 1982 में वो मिलीं जो ख़ानक़ाह की पाजिटिव इनर्जी थीं, जैसे हजरत आदम और हव्वा, फिर आसमान से अनवारात की एक नई धार उतरना शुरू हुई चिश्ती रंग और रौनक से सराबोर।

शायरी शुरू हुई और 1967 से महफिले समा शुरू हो चुकी थी। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी।

1974 के बाद अजमेर शरीफ़ हाज़िरी का सिलसिला शुरू हुआ, आठ लोगों से और 2008 तक 450 से 500 लोगों तक जा पहंुचा।

और फिर 1978 में ख़ानक़ाह की तामीर मुकम्मल हुई, अगस्त 1978 में ख़ानक़ाह (आश्रम) में पहली न्याज़ महफ़िल हुई। 1981 तक थोड़ी देर बरफ़ख़ाने में भी बैठते। पर ओमप्रकाश कपूर के दिल में ये ख़्याल आने लगा कि ये हमारी जगह पर कब्ज़ा करना चाहते हैं, फ़क़ीर का दिल तो आइने की तरह होता है, साहब पर उसकी बद्ख़्याली ज़ाहिर हो गई और उसी वक्त फै़सला कर लिया कि अब यहां नहीं बैठना। उसी दिन से पूरी तरह ख़ानक़ाह में रहना शुरू कर दिया। बाद में मिस्टर कपूर मिन्नतें करते रहे कि लौट आइए, इंतजार करते रहे।

हज़रत फ़रमाते कि हम पीछे घूम कर नहीं देखते। पीछे देखने वाला कभी आगे नहीं बढ़ पाता। हमेशा ये ख़्याल रखो कि हमें आज का दिन कितनी ख़ूबसूरती से गुज़ारना है उसी पर आने वाले कल की इमारत खड़ी होती है। जिंदगी को एक सांस से ज्यादा मत समझो, एक सांस निकली तो अगली आएगी या नहीं इसका कोई भरोसा नहीं।

ख़ानक़ाह जाने का रास्ता मिसेज नरोना की ज़मीन से होकर था। (कानपुर में माल रोड पर सिटी सेंटर के बगल से रास्ता गया है) बहुत बद्बख़्त औरत थी, रास्ते का दरवाज़ा बंद कर देती, कुत्ते छोड़ देती, जिससे आने जाने वालों को परेशानी होती। साहब के मानने वाले और शिष्यों ने कई बार तइय्यारी की उसे सबक सिखाने की, लेकिन साहब मना कर देते कि बरदाश्त करो आसमान से ग़ैब की दुनिया से हिसाब होगा। लेकिन हमारे हज़रत तो इसराफ़ील का जुज़ (शिव का अंश) हैं, इन्तेहा की बरदाश्त और सब्र, हर तरह से समर्थ होने के बावजूद।

पहले तो उसके कुत्ते एक एक कर मर गए। सन् 1983 में इसी जायदाद के सिलसिले में मुक़दमें की तारीख़ थी उससे बचने के लिए जाकर अस्पताल में भर्ती हो गई और झूठमूठ फुड़िया का आपरेशन करा लिया। वो आपरेशन क़हर बन गया, उसी में ज़हर फैला और मर गई।

हमने सवाल किया कि उसे सुधार देते तो फ़रमाया-रूहें नहीं बदलतीं, फ़कीर की ख़ामोशी ही सबसे बड़ी सज़ा है।

सन् 1973 असली तालीम का वक्त आ गया, (काफी लंबे वक़्त तक जब सालिक बातिनी राह में साबित क़दम रह ले) हज़रत मौजशाह बाबा आए। हज़रत अब्दुर्रहमान साहब मौज बाबा, जिनके पीर हज़रत बाबा ताजुद्दीन साहब नागपुर वाले, मौज बाबा का सिलसिला कलियर शरीफ़ और अजमेर शरीफ़ से भी जुड़ा है। हमारे हज़रत का उनसे मिलने का वाक़्या यूं है।

साहब के गांव के ही एक शख़्स जो मौजबाबा के मानने वाले थे, वो इंतकाल फ़रमा गए तो मौजबाबा उसके लड़के से मिलने उसके घर गए, वो लड़का ज़्यादा जानता मानता था नहीं। बाबा की आदत थी ऐसी कि पन्द्रह बीस मिनट से ज़्यादा कहीं रूकते नहीं थे। ख़ैर उस मूर्ख ने यूं ही कुछ बात की और बाबा उठ के चल दिए। तब तक न जाने क्या उसकी अक़्ल में आया, अपने लड़क़े को पांच रूपए देकर भेजा कि सवारी के लिए दे आओ। ये सब गांव के ही एक शुकरूल्ला देख रहे थे, जो बाबा से मिलने ही आ रहे थे, जैसे ही लड़के ने कहा अब्बा ने सवारी के लिए रूपए दिए हैं, बाबा साहब ने बड़ी सख़्ती से उसकी तरफ़ देखा चेहरे पर अजीब जलाल था, जो काली चादर ओढ़े थे उलट दी उसमें नोट ही नोट भरे थे और जोर से बोले दफ़्तर में दाख़िल। फिर तो उस आदमी ने भी पैर पकड़ के माफ़ी मांगी, पर बाबा ख़ामोश रहे और चले गए। शुकरूल्ला जनाब के घर पहंुंचे, उन्होंने बाबा साहब से हमारे हज़रत का ज़िक्र किया तो उन्होंने साहब का नाम पता सब बता दिया।

उसके कुछ दिन बाद 1973 में कानपुर साहब के घर आए, उस वक़्त वो घर में नहीं थे। कुछ देर बाद जब वापस आए तो देखा कि ‘‘सामने बहुत बढ़िया डबल ब्रेस्ट का स्वेटर और सफेद लुंगी पहने काला शाॅल ओढ़े बैठे सिगरेट पी रहे हैं। निहायत ख़ूबसूरत और किताबी चेहरे वाले एक ख़ास कशिश थी उनमें, हमारे साहब को देखकर मुस्कराए, जब खलवत हो गई तो पूछा- क्या रियाज करते हो ? साहब के बताने पर फ़रमाया कि कुछ कमी रह गई है। साहब ने कहा कमी है तो दूर कर दीजिए, फ़रमाया कि इसीलिए तो आए हैं।’’

तब से हर बरस आने लगे, रूकते कुछ ही देर थे, हर एक से मिलते भी नहीं, न कोई पता ठिकाना, कोई जानना चाहे तो भी पता नहीं कर सकता। हजरत मौजशाह बाबा ने 2003-21 दिसम्बर को इस दुनिया से परदा फरमाया, साहब ने हमें सन् नहीं बताया। 21 दिसम्बर 2003 से ख़ानक़ाह में मौजबाबा का उर्स शुरू हुआ।

WhatsApp chat